बचपन बितल गाँव में,
वर- पिपल के छाँव में ।
जेब में कभी ना रहल पैसा,
फिरभी खाए के ना रहे चिंता।
खेत के कच्चा चना आ मटर,
गाय-भैंस के ताजा दूध आ बटर ।
मकई- गेहूँ के होरहा के स्वाद,
अब हो गइल बा बस एक याद।।
साइकिल के टिंग टिंग सवारी,
गाव-घर में रहे अलग मस्तानी ।
हाट-बाजार के कचरी आ मूरी,
रेस्टुरेन्ट में ना मिले ओइसन खुशी।।
गाव के लालटिन आ चटाई
स्कुल में बोरा पर के पढाई ।
माइ बाबुके प्यारवाला ओरहन,
सहर में याद आवेला हरदम।।
दोस्तन से रोज मुलाकात
सुख दु: ख परिवार के साथ ।
सहरिया मस्ती बा एक सपना,
गाँव के जैसे ना कोइ अपना ।।
-विनोद शाह
(कलैया, नेपाल, हाल : न्युयोर्क, अमेरिका)












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